हमारे देश के प्रचार माध्यम लोकतंत्र में नाम बहुत उछलते हैं पर
जनप्रतिनिधियों पर जिस तरह से टिप्पणियां करते हैं वह असामान्य प्रकार की
हैं। सांसदों और विधायकों के वेतन और
भत्ते बढ़ने पर वह गरीब आदमी का नाम लेकर जिस तरह
विलाप करते हैं उसे देखकर नहीं लगता कि लोकतंत्र और राजतंत्र की उन्हें कोई
समझ है। हमारे विचार से सांसदों और विधायक
अगर अपना वेतन भत्ते बढ़ाने के साथ ही अन्य सुविधायें भी लें तो कोई बुरी बात नही
है। जनप्रतिनिधियों के जनहित में निर्वाह
की जा रही भूमिका पर ही चर्चा हो तो बात समझ में आये। अगर आप केंद्र सरकार से नगर निगमों के बजट की
बृहद राशि पर नज़र डालें तो सांसदों, विधायकों और पार्षदों के वेतन भत्ते ऊंट के मुंह में जीरे के समान प्रतीत
होता है। जनप्रतिनिधि एक व्यवस्था के
शीर्ष पर विराजमान होते हैं उनमें दायित्व निर्वाह की क्षमता दिखाने की अपेक्षा
सामान्यजन करते हैं। जनप्रतिनिधियों की
निजी आय पर सामान्य जन अधिक विचार नहीं करते।
हमारी दृष्टि से प्रचार माध्यमों को इन जनप्रतिनिधियों के सार्वजनिक
कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
जिस जनप्रतिनिधि में जनहित के प्रति अरुचि का भाव हो या वह निष्क्रिय हो
उसे अपने मूल कर्म के लिये प्रेंरित करते रहना चाहिये। इस तरह जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों पर बहस
करना अर्थशास्त्र लेखांकन के विद्यार्थी होने के नाते हमें हल्कापन लगता है। हम न
जनप्रतिनिधि हैं न भविष्य में बनने की संभावना है इसलिये किसी लाभ की आशा से यह
लिख रहे हैं यह सोचना गलत होगा। एक
सामान्य नागरिक के रूप में हमारी जनप्रतिनिधियों से सार्वजनिक दायित्व निभाने की
आशा ही की जाती है। वह उस खरे उतरनते हैं
या नहीं, इसी पर ही विचार होना चाहिये।
प्रचार माध्यमों के पास लोकतंत्र के नारे के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी है
पर उसका उपयोग करना आता कि नहीं यह विचारणीय प्रश्न है। सामान्य मनुष्य की अभिव्यक्ति हमेशा चिंत्तन और
मनन के दौर से निकलकर बाहर आना चाहिये-हमने देखा होगा कि मानसिक रूप से असामान्य
मनुष्य चाहे कुछ बड़बड़ाते हैं और लोग उसे नज़र अदाज कर देते हैं। बहस के विषयों के
चयन में इस तरह की हड़बड़ी जिस तरह प्रचार प्रबंधक दिखा रह हैं वह गंभीर लोगों में
उनकी छवि इसी तरह की बनाती है। सतही विषयों से कभी भी प्रचार माध्यम समाज के मार्ग
दर्शक नहीं बन सकते। सार्वजनिक विषयों से
जुड़े पुराने लोग आज के प्रचार माध्यमों के हल्केपन से उदास ही हो सकते हैं। नये
लोगों के पास तो वैसे भी अब बहुत सारे चैनल हैं इसलिये हाल बदल देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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