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Friday, November 27, 2015

संसार से भागने वाले वैरागी की अपेक्षा निष्काम वीतरागी श्रेष्ठ-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख (Sansar se bhage Ragi se Nishkam Veetragi Shreshth-A Hindu Spritualy Thought based on AshtakraGita)

                           हमारे यहां कथित रूप से अनेक ऐसे सन्यासी हैं जो विषयों का त्यागने की बात  तो करते है पर बड़े बड़े आश्रम बनाने के साथ ही भारी मात्रा में संग्रह भी करते हैं। दरअसल वह भारत के स्वर्णिम अध्यात्मिक ज्ञान के विक्रेता की तरह हैं जिनका  समाज में चेतना लाने से अधिक अपना वैभव जुटाना होता। सन्यास सहज नहीं है यह बात श्रीमद्भागवत गीता में कही गयी है।  यही कारण है कि निष्काम कर्म का सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसमें अपनी दैहिक आवश्यकताओं की सीमा तक विषयों में लिप्त रहने का संदेश है।
अष्टावक्रगीता में कहा गया है कि
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हातुमिच्छति संसारं दुःखजिह्यासया।
वीतरागी हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-रागी पुरुष दुःख से बचने के लिये संसार का त्याग करना चाहता है लेकिन वीतरागी दुःखमुक्त होकर विषयों से जुड़कर भी खेद को प्राप्त नहीं होता।
                           यह अंतिम सत्य है कि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये नहीं रह सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि जो आनंद सांख्ययोगी लेना चाहते हैं वह कर्मयोगी विषयों में अनुराग त्याग कर भी प्राप्त कर सकते हैं। गीता में तो सांख्ययोग को अत्यंत कठिन बताया गया है। यहां तक कि सन्यासी होने पर विषयों के चिंत्तन से मुक्त होना कठिन माना गया है। ज्ञानी मनुष्य इतना ही कर सकता है कि जीवन निर्वाह के लिये विषयों में अपने हित की सीमा तक सक्रिय रहकर अनुराग का त्याग कर दे। यही निष्काम कर्म का सिद्धांत है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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